कक्षा 12 भूगोल अध्याय -2 विश्व की प्रमुख जनजातियाँ –एस्किमों, बुशमैन, भील व गौण्ड
कक्षा 12 भूगोल अध्याय 2 विश्व की प्रमुख जनजातियाँ |
जनजाति:- लोगों का ऐसा समूह जो प्रकृति के सानिध्य में आदिम ढंग से अपना जीवन यापन करता है तथा सामाजिक व सांस्कृतिक रूप से एक दूसरे से घनिष्ट रूप से जुडे रहते हैं ,जनजाति कहलाता है।
विश्व की प्रमुख जनजातियां:-
संसार में अलग-अलग भागों में अलग-अलग प्रकार की जनजातियां पाई जाती हैं जिनका विवरण निम्नानुसार है
प्रदेश का नाम ———- जनजातियां
ध्रुवीय व ठंडे प्रदेश — एस्किमो सेमोयड्स याकूत चकची
विषुवत रेखीय सघन वन पिग्मी, सेमांग, सकाई
उष्ण- शुष्क कालाहारी मरुस्थल – बुशमैन
सम शीतोष्ण कटिबंधीय घास क्षेत्र -मसाई बद्दू
दुर्गम पहाड़ी व पठारी क्षेत्र— – भील, गोंड, संथाल, मीणा, नागा
विश्व की प्रमुख प्रजातियां
काकेसाइड — इनका रंग सफेद होता है (हिमोग्लोबिन वर्णक के कारण) तथा बाल घुंघराले होते हैं।
मंगोलॉयड/मंगोल—इनकी त्वचा पीली होती है (कैरोटीन वर्ण के कारण) तथा बाल सीधे होते हैं मुंह चौड़ा होता है।
नीग्रोयेड/ निग्रीटो– इनकी त्वचा काली (मेलेनिन वर्ण के कारण) होती है तथा बाल उन जैसे होते हैं होठ मोटे होते हैं।
एस्किमों जनजाति
सामान्य परिचय:-
एस्किमो का अर्थ:- कच्चा मांस खाने वाला होता है ,ये शीत प्रदेशों के निवासी हैं और मंगोल प्रजाति से संबंधित हैं ये लोग आखेटक एवं खाद्य संग्राहक होते हैं। तथा हंसमुख एवं प्रसन्नचित स्वभाव के होते है
निवास क्षेत्र:-
एस्किमो मुख्यतः शीत प्रदेशों के निवासी हैं जो अलास्का, उत्तरी अमेरिका, कनाडा, ग्रीनलैंड, स्कैंडिनेविया उत्तरी पश्चिमी यूरोप एवं उत्तरी साइबेरिया क्षेत्रों में निवास करते हैं इनको अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे उत्तरी अमेरिका में एस्किमो, उत्तरी पश्चिमी यूरोप में लेप्स, उत्तरी साइबेरिया में सेमोयड्स याकूत चक्की तुंग आदि नामों से जाना जाता है।
आर्थिक क्रियाकलाप:-
आर्थिक क्रियाकलापों के अंतर्गत हम निम्नलिखित बिंदुओं का अध्ययन करते हैं
- आखेट,
- भोजन,
- वस्त्र ,
- निवास ग्रह,
- यंत्र व उपकरण
आखेट:- एस्किमो जनजाति की आजीविका का मुख्य स्रोत आखेट या शिकार ही है जो निम्नलिखित दो प्रकार का होता है
शीतकालीन आखेट,
बसंतकालीन आखेट
शीतकालीन आखेट:–
शीतकाल में किया जाने वाला आखेट शीतकालीन आखेट कहलाता है यह दो विधियों से किया जाता है
माउपाक:-
माउपाक का अर्थ है प्रतीक्षा करना. इस विधि में एस्किमो सील मछली के शिकार के लिए बर्फ में छिद्र करके हड्डी पसा देता है और जैसे ही मछली श्वास लेने के लिए छिद्र के पास आती है तो हड्डी हिल जाती है और एस्किमो लोग हारपून नामक भाले से उसका शिकार कर लेते हैं
इतुरपाक-–
इस विधि में बर्फ में दो छिद्र बनाए जाते हैं एक छिद्र में मछली को चारा डाला जाता है तथा दूसरे छिद्र से हारपुन नामक भाले से मछली का शिकार किया जाता है
बसंतकालीन आखेट–
मार्च के महीने में जब मछलियां धूप सेकने के लिए बाहर आती है तो इनका शिकार कर लिया जाता है इसे उतोक कहा जाता है
भोजन-
एस्किमो का मुख्य भोजन कच्चा मांस होता है ये लोग सील मछली, व्हेल मछली, सी लॉयन कैरीबों बारहसिंघा आदि का कच्चा मांस खाते हैं
वस्त्र-
इनके वस्त्र मुख्यतः कैरीबो बारहसिंघा व सील मछली की खाल से बने होते हैं जो निम्नानुसार हैं
तिमियाक– यह एस्किमो द्वारा पहने जाने वाली बाँहदार जर्सीनुमां वस्त्र होता है
अनोहाक-– यह तिमियाक के ऊपर पहने जाने वाला वस्त्र है
कार्मिक या मुक्लुक्स – ये सील मछली की खाल से बने हुए नुकीले जूते पहनते हैं जिन्हे कार्मिक या मुक्लुक्स कहा जाता है ।
निवास गृह-–
इनका निवास गृह बर्फ, पत्थर , हड्डियों तथा चमडे (सील की खाल) के बने होते हैं ये अलग –अलग मौसम में अलग अलग प्रकार के घरों में निवास करते हैं। जो निम्नप्रकार के होते हैं
इग्लू – ये बर्फ से बने हुए गुंबदनुमा घर होते हैं जो शीतकाल में उपयोग में आते हैं
कर्मक- यह हड्डी और लकड़ी के बने होते हैं और ग्रीष्म काल में काम में आते हैं
ट्युपिक– ये कैरीबो व ध्रुवीय भालु की खाल से बने तम्बू होते है, ग्रीष्मकालीन शिकार के दौरान एस्किमो इन तम्बुओं मे रहते है।
यंत्र व उपकरण–
एस्किमो मुख्यत एक भाला, दो नाव व एक गाडी काम में लेते हैं
हारपून– एस्किमो जनजाति द्वारा सील मछली के शिकार करने के लिए काम में आने वाला एक प्रकार का भाला जिसे हारपून कहते हैं
कयाक– यह चमड़े से बनी एक प्रकार की नाव होती है जो 5 मीटर लंबी तथा 1.5 मीटर चौड़ी होती है
यह पुरुषों द्वारा शिकार के दौरान काम में ली जाती है।
उमियाक– यह नाव कयाक से बड़ी होती है तथा स्त्रीयों द्वारा काम में ली जाती है।
स्लेज– बर्फ पर चलने वाली पहिए विभिन्न गाड़ी जैसे कुत्ते व रेनडियर खींचते हैं
समाज एवं संस्कृति—
ये पित्रवंशीय समाज में रहते हैं तथा जादू टोना में विश्वास करते हैं इनके उत्सव समारोह मुख्यतः ग्रीष्म काल में ही मनाये जाते हैं शीतकाल में वृद्ध और अशक्त व्यक्ति भोजन के अभाव में आत्महत्या तक कर लेते है
वातावरण समायोजन —
अति कठोर वातावरण के निवासी होने के बावजूद भी यह लोग इग्लू स्लेज आदि के प्रयोग द्वारा वातावरण के साथ समायोजन कर लेते हैं
आधुनिक संस्कृति से संपर्क–
सन 1960 के बाद इन लोगों के संपर्क यूरोपीय व अमेरिका के लोगों से हुआ वर्तमान में यह आधुनिक समाज में परिवर्तित हो रहे हैं स्लेज के स्थान पर स्नो स्कूटर का प्रयोग करने लगे हैं
बुशमैन
सामान्य परिचय
अफ्रीका महाद्वीप के कालाहारी उष्ण मरुस्थल में निवास करने वाले ये लोग बुश्मेन, कोसान, रव्वी व बसारवा आदि नामों से भी जाने जाते हैं इनका संबंध नीग्रिटो प्रजाति से है ये मुख्यता आखेटक व खाद्य संग्राहक होते हैं
विशेषताएं-
ये लोग नाटे कद के होते हैं तथा इनके होठ मोटे होते हैं ,जबडे बाहर निकले हुए नहीं होते हैं रंग काला होता है।
निवास क्षेत्र–
ये लोग अफ्रीका महादीप में 18 डिग्री दक्षिणी अक्षांश रेखा से 24 डिग्री दक्षिणी अक्षांश रेखा के मध्य बेचुआनालैंड (कालाहारी मरुस्थल) में निवास करते हैं मुख्यतः यह दक्षिण अफ्रीका, बोत्सवाना, नामीबिया अंगोला देशों में निवास करते हैं विश्व प्रसिद्ध एटोश राष्ट्रीय उद्यान भी इसी क्षेत्र में स्थित है
आर्थिक क्रियाकलाप
आखेट–
ये मुख्यतः आखेटक होते हैं तथा तीर कमान व भाले से शिकार करते हैं ये लोग जानवरों की आवाज की नकल करने मे बहुत निपुण होते हे ये निम्नलिखित चार विधियों से शिकार करते हैं
- कीचड़ में धसां कर
- फंदो में फंसा कर
- गड्डों में गिरा कर
- विषाक्त जल पिलाकर
भोजन–
ये लोग सर्वभक्षी होते हैं -दीमक ,चीटियां और उनके अंडे इनका प्रिय भोजन होता है, साथ ही मछली, पौधों की जड़े बैरी और शहद भी इनके भोजन के अंग होते है ये लोग खाने के बहुत शौकीन होते हैं ,ये पेटू होते हैं। एक बुशमैन एक बार मे आधी भेड तक खा जाता है। त्यामा एक प्रकार का तरबूज है जिसे जल पूर्ति के लिए मानव तथा पशु दोनो ही काम मे लेते हैं।
वस्त्र–
उष्णकटिबंधीय जलवायु के निवासी होने के कारण ये लोग बहुत कम वस्त्र पहनते हैं पुरुष एक तिकोनी लंगोट पहनता है तथा स्त्रियाँ चोंगा पहनती हैं जिसे स्थानीय भाषा में क्रॉस कहा जाता है इसी क्रॉस में वे अपने शिशु तथा संग्रहित वस्तुओं को लपेट कर लाते हैं ये चमडे की टोपी व जूते भी पहनते हैं।
निवास ग्रह–
ये लोग गुफाओं में तथा घासफूस से बनी झोपड़ियों में निवास करते हैं। इनके अस्थाई गांव को वेर्फ कहते हैं जिनमें 8 से 10 झोंपड़ी होती है
औजार एवं बर्तन-–
इनके औजार एवं बर्तन शुतुरमुर्ग व जिराफ की हड्डियों से बने होते हैं शुतुरमुर्ग के अंडे का उपयोग जल रखने व आभूषण बनाने में किया जाता है
समाज व संस्कृति–
यह लोग आदिम प्रकार के समाज में रहते हैं जादू टोने वे भूत-प्रेतों में विश्वास करते हैं ये लोग दो भगवानों मे विश्वास करते हैं। ओझा इन्हे बीमारियों व प्रेत आत्माओं से बचाता है
वातावरण समायोजन–
विषम जलवायु क्षेत्रों में निवास करने के कारण इनमें वातावरण समायोजन की क्षमताएं बहुत अधिक होते हैं अकाल के समय बुश्मैनी स्त्रियां गर्भधारण करना बंद कर देते हैं शिकार किए गए पशुओं के प्रत्येक भाग को काम में लेते हैं
आधुनिक संस्कृति से संपर्क–
वर्तमान समय में आधुनिक समाज के संपर्क में आने की वजह से ये लोग आदिम निर्वहन कृषि भी करने लगे हैं इनके पहनावे में भी भारी बदलाव आया है।
भील जनजाति
सामान्य परिचय—
भील शब्द की उत्पत्ति द्रविड़ भाषा के बीलू शब्द से हुई है जिसका अर्थ है तीरंदाज भील भारत की सबसे प्राचीन तथा संख्या की दृष्टि से तीसरी (प्रथम-गौंड, द्वितीय-संथाल) बड़ी जनजाति है यह राजस्थान की दूसरी बडी (प्रथम मीणा) जनजाति है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि—
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भीलो की उत्पत्ति महादेव के पुत्र निषाद से मानी जाती है निषाद ने पिता महादेव के बैल नंदी को घायल कर दिया था दंडस्वरूप निषाद को पर्वतीय क्षेत्र में रहने की सजा दी गई। कर्नल टॉड के अनुसार भील अरावली पर्वतीय क्षेत्र में निवास करने वाले लोग हैं जिन्होंने राणा पूंजा के नेतृत्व में अकबर के खिलाफ महाराणा प्रताप की सहायता की थी।
इनका संबंध रामायण काल से भी माना जाता है – भगवान श्री राम जब सीता की खोज में जा रहे थे तो शबरी ने उन्हें बेर खिलाए थे
शारीरिक गठन—
भील जनजाति के लोगों का रंग गहरा काला, नाक चौड़ी, कद मध्यम व शरीर गठीला होता है। ये लोग परिश्रमी व ईमानदार होते हैं। चोरी करना धार्मिक पाप मानते हैं।
निवास क्षेत्र—
भील लोग अरावली, विंध्याचल और सतपुड़ा की पहाड़ियों तथा वन क्षेत्रों में निवास करते हैं भारत में ये लोग चार राज्यों राजस्थान, मध्यप्रदेश,
गुजरात तथा महाराष्ट्र में निवास करते हैं तथा राजस्थान के दक्षिणी भागों केबांसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर एवं चित्तौड़गढ़ जिले में मुख्य रूप से पाए जाते हैं।
आर्थिक क्रियाकलाप—
भीलो की आजीविका का मुख्य आधार खाद्य संग्रहण, आखेट, आदिम कृषि एवं पशुपालन है ये लोग वनों से कंद मूल, फल-फूल एवं पत्तियां एकत्र करते हैं
आखेट—
ये लोग जंगलों में तीर कमान से जंगली पशुओं का शिकार करते हैं तथा तालाबों से मछली पकड़ने का कार्य भी करते हैं बाण दो प्रकार के होते हैं
हरियो- बडे पशुओं के शिकार के लिए काम में लिया जाता है
रोबदो- छोटे पशुओं के शिकार के लिए काम में लिया जाता है।
पक्षियों को पकड़ने के लिए एक प्रकार का फंदा काम में लिया जाता है जिसे फटकिया कहा जाता है
कृषि—
भील लोग स्थानांतरित प्रकार की कृषि करते हैं जो निम्नलिखित नामों से जानी जाती है-
चिमाता–– पहाड़ी क्षेत्रों में की जाने वाली झूमिंग कृषि को चिमाता कहा जाता है
दजिया– मैदानी भागों में की जाने वाली कृषि को दजिया कहा जाता है।
भोजन—
भील लोग मुख्यता मक्का व ज्वार को भोजन के रूप में काम में लेते हैं ।ये लोग मक्का से बनी राबड़ी तथा महुआ से निर्मित मदिरा (मावडी) के बहुत शौकीन होते हैं। उत्सव एवं प्रीतिभोज के अवसर पर चावल बनाए जाते हैं जिन्हें चोखा कहा जाता है।
वस्त्र–
प्राचीन समय में ये लोग बहुत कम वस्त्र पहनते थे ,लेकिन वर्तमान में पुरुष कमीज, धोती, साफा(पोत्या) या पैंट शर्ट पहनने लगे हैं। स्त्रियां घागरा, काँचली, व लुगड़ी पहनती है। लड़के लंगोट पहनते हैं तथा लड़कियां घागरी व औढनी पहनती हैं। ये लोग चांदी व पीतल आदि से बने हुए आभूषण भी पहनते हैं।,
निवास ग्रह—
भीलों के घर सामान्यता लकड़ी व घास फूस से बने होते हैं जिन्हें कू(KOO) कहा जाता है ।इनकी झोपड़ियां अपने आप में पूर्ण होती हैं। आवास के साथ अन्न भंडारण व पशुओं को रखने की व्यवस्था भी होती है। भीलो के छोटे गांव को फला तथा बड़े गांव को पाल कहते हैं। पाल के मुखिया को गमेती व मार्गदर्शक को बोलावा कहते हैं। आपातकाल में भील अपने लोगों को एकत्रित करने के लिए ढोल बजाते हैं तथा फायरे-फायरे का रणघोष करते हैं जिसका अर्थ है- युद्ध करना।
समाज व संस्कृति—
सामाजिक दृष्टि से भील पितृसत्तात्मक होते हैं घर का मुखिया सबसे बुजुर्ग व्यक्ति होता है मुखिया को तदवी कहा जाता है भीलों में बहु पत्नी प्रथा प्रचलित है भील जाति अनेक छोटे-छोटे समूह में विभक्त होती है जिन्हें अटक/ कुल या गोत्र कहते हैं।
उत्सव एवं त्यौहार—
होली व दीपावली महत्वपूर्ण त्योहार हैं। लंबे समय तक होली माता के गीत गाते हैं घूमर व गैर भीलों के प्रमुख नृत्य हैं गवरी इनका प्रमुख पर्व है। बेणेश्वर मेला इनका प्रमुख मेला है, इसे आदिवासियों का कुंभ कहा जाती है। यह डूंगरपुर जिले में सोम माही व जाखम के संगम पर प्रतिवर्ष जनवरी-फरवरी माह में लगता है( माघ पूर्णिमा को)
सामाजिक जीवन—
भील पितृसत्तात्मक होते हैं। अंधविश्वासी होते हैं , जादू-टोने व झाड फूँक मे विश्वास करते हैं। इनमें बहू पत्नी प्रथा पायी जाती है। भीलों में विवाह कई प्रकार के होते हैं जैसे—
- मोर बाँन्दिया विवाह,
- अपहरण विवाह,
- देवर विवाह,
- विनिमय विवाह,
- सेवा विवाह
दापा– विवाह का प्रस्ताव वर पक्ष की ओर से आता है और कन्या का मूल्य देना पडता है जिसे दापा कहा जाता है।
गोल गाधेडो प्रथा– जब कोई भील युवक शूरवीरता व साहस का कार्य दिखाता है तो उसे युवती चुनने का अधिकार मिल जाता है इस प्रथा को गोल गाधेडों कहा जाता है।
समाज व संस्कृति से संबंधित महत्वपूर्ण शब्दावली-
- अटक – भीलों के गोत्र अटक कहते हैं
- भगत– धार्मिक संस्कारों को संपन्न कराने वाले व्यक्ति को भगत कहते हैं
- भोपा– झाड़-फूंक करने वाले व्यक्ति को भोपा कहते हैं
- बोलावा– भील लोग मार्गदर्शक को बोलावा कहते हैं
- गमेती– समस्त पाल के मुखिया को गमेती कहते हैं
- फला-– भीलो के छोटे गांव को फला कहा जाता है
- पाल – भीलों के बडे गाँव को पाल कहते हैं।
- पालवी – पाल के मुखिया को पालवी कहते हैं।
- तदवी – घर के मुखिया को तदवी कहते हैं।
- टापरा – एक अकेले घर को टापरा कहते हैं।
- कू— दो या तीन टापरा मिल कर कू कहलाते हैं।
- पालवी- ऊँची पहाडियों पर रहने वाले भील।
- वागडी– मैदानों में रहने वाले भील
आधुनिक संस्कृति से सम्पर्क – शहरी क्षेत्रों से सम्पर्क होने से इनके जीवन व क्रियाकलापों मे तेजी से बदलाव आया है। सरकार भी इनके विकास के लिए विभिन्न योजनाओं का क्रियान्वन कर रही है।
गौंड जनजाति
सामान्य परिचय—
गौंड जनजाति विश्व व भारत की सबसे बडी जनजाति है। गौंड शब्द की उत्पति खोण्डा से हूई है जिसका अर्थ होता है – पहाडी। गौंड अपने आप को कोइटुर व कोल भी कहते हैं। ये प्राचीन राजाओं के वंशज हैं जिन्होने 16वीं से 18वीं शताब्दी के मध्य भारत के गढ माण्डला, देवगढ, चांदा व खेडला पर शासन किया।
निवास क्षेत्र-
गौंड जनजाति भारत के मध्यवर्ती राज्यों – मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ,महाराष्ट्र, तेलंगाना, उडीसा, झारखण्ड, तथा आसाम राज्यों में निवास करते हैं। ये लोग सतपुडा पहाडियों, मैकाल श्रेणी, सोन –देवगढ उच्च भूमि, बस्तर का पठार व गढजात पहाडियों में रहते हैं।
आर्थिक क्रियाकलाप–
गौंड जनजाति का मुख्य व्यवसाय झूमिंग कृषि व आखेट है। साथ ही ये वनोत्पाद संग्रह , पशुपालन व मछली पकडने का कार्य भी करते है। झूमिंग कृषि की दो विधियां प्रचलित हैं—
दीप्पा कृषि– यह झाडियों व घासफूस को जलाकर, भूमि को समतल करके की जाती है।
पैंडा कृषि– मध्यप्रदेश के बस्तर जिले में पहाडी ढालों पर सीढीदार खेत बना कर की जाती है।
ये लोग खेतों में बीज बोने के बाद देवी माता को और जंगल के अन्य देवताऔ को पशु बलि देते हैं।
गौंड के वर्ग– इनमें कुरूख, केवट, धीवर तथा रावत मुख्य वर्ग हैं।
कुरूख, केवट व धीवर वर्ग के गौंड मछुवा कर्म द्वारा अपना जीवनयापन करते हैं।
रावत वर्ग के गौंड पशुपालन व दूध बेचकर अपना जीवनयापन करते हैं।
आखेट– वर्तमान में आखेट का स्थान कृषि ने ले लिया है।
भोजन– इनका मुख्य खाद्यान्न स्थानीय अनाज कोदू व कुटकी है, उत्सवों व त्योहारों पर चावल बनाते है। बलि दिये गये जानवर का मांस भी खाते है। महवा से बनी शराब का सेवन भी करते हैं।
वस्त्र व आभूषण–
ये लोग प्राय सूती वस्त्र पहनते हैं। ये लोग चांदी व एल्युमिनियम के गहने पहनते हैं। स्त्रियाँ शरीर पर गोदना( टैटू) गुदवाती हैं।
निवास गृह–
ये लोग नंगले अर्थात पल्ली और छोटे-छोटे गांवों में रहते हैं जिन्हे टोला कहते हैं। इनके घर घास –फूस व मिट्टी के बने होते है। जिनमें रहने का कमरा ,रसोई , बरामदा व पूजाघर जरूर होता है।
औजार व बर्तनः-
इनके औजार बहुत ही साधारण होते है जिनमें फावडा, खुरपी, दराती ,खुल्हाडी,व तीर प्रमुख है। जो स्थानीय कारीगरों द्वारा बनाये जाते हैं।
समाज व संस्कृति–
ये लोग पितृसत्तात्मक होते हैं। सबसे बुजुर्ग पुरूष परिवार का मुखिया होता है। इनके गाँव के मुखिया को पटेल या मुखादम कहते है तथा गाँव के चौकीदार को कोतवार कहते हैं। गाँव के पुरोहित व पुजारी को देबारी कहते हैं। गौंडों के चार प्रमुख वर्ग (कुरूख,केवट ,धीवर तथा रावत) हैं जिन्हे गौंडी भाषा में सगा कहते हैं गौंड लोग उत्सव व पर्व बडी धूमधाम से मनाते हैं। प्रधान गौंडों की प्रमुख गायक जाति है जो इनकी मान्यताओं व इतिहास को गाकर सुनाती हैं।
आधुनिक संस्ककृति से सम्पर्क—
वर्तमान समय में गौंड निवास क्षेत्रों में औद्योगिक विकास के कारण ये लोग श्रमिक के रूप में कार्य करने लगे हैं। इनमें व्यापत कबाडी प्रथा (बंधुआ मजदूर) को सरकार न पूर्णत प्रतिबंधित कर दिया है। कबाडी प्रथा के तहत छोटे से कर्ज को चुकाने के लिए ऋणी की कई पीढीयों को साहूकारों के पास गुलामों की भाँति बिना वेतन के कार्य करना पडता था। अब इनमें शिक्षा का स्तर बढने लगा है तथा अनुसुचित जनजाति में शामिल होने के कारण सरकार से कई सुविधाएं मिलने लगी हैं।